धम्मपद ! यमकवग्ग ! भाग - 1 में कुल 20 गाथाएँ हैं।
यमकवग्ग में कुल 20 गाथाएँ हैं।
यमकवग्गो
गाथा १
मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पदुट्ठेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं दुक्खमन्वेति, चक्कं व वहतो पदं॥
भाषान्तर:
सभी मानसिक अवस्थाओं का अगुवा मन है, मन ही उनका प्रधान है, वे सभी मनोमय हैं। यदि कोई व्यक्ति दूषित मन से कुछ बोलता या करता है, तो दुःख उसके पीछे वैसे ही चलता है, जैसे गाड़ी का पहिया खींचने वाले बैल के पैर के पीछे-पीछे चलता है।
गाथा २
मनोपुब्बङ्गमा धम्मा, मनोसेट्ठा मनोमया।
मनसा चे पसन्नेन, भासति वा करोति वा।
ततो नं सुखमन्वेति, छाया व अनपायिनी॥
भाषान्तर:
सभी मानसिक अवस्थाओं का अगुवा मन है, मन ही उनका प्रधान है, वे सभी मनोमय हैं। यदि कोई व्यक्ति प्रसन्न मन से कुछ बोलता या करता है, तो सुख उसके पीछे वैसे ही चलता है, जैसे कभी न हटने वाली छाया।
गाथा ३
अक्कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे।
ये च तं उपनय्हन्ति, वेरं तेसं न सम्मति॥
भाषान्तर:
"उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, उसने मुझे लूट लिया।" जो लोग इस प्रकार की बातों में उलझे रहते हैं, उनका वैर कभी शांत नहीं होता।
गाथा ४
अक्कोच्छि मं अवधि मं, अजिनि मं अहासि मे।
ये च तं न उपनय्हन्ति, वेरं तेसूपसम्मति॥
भाषान्तर:
"उसने मुझे गाली दी, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, उसने मुझे लूट लिया।" जो लोग इस प्रकार की बातों में नहीं उलझते, उनका वैर शांत हो जाता है।
गाथा ५
न हि वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं।
अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो॥
भाषान्तर:
इस संसार में वैर से वैर कभी शांत नहीं होता। अवैर (प्रेम) से ही वैर शांत होता है, यही सनातन धर्म है।
गाथा ६
परे च न विजानन्ति, मयमेत्थ यमामसे।
ये च तत्थ विजानन्ति, ततो सम्मन्ति मेधगा॥
भाषान्तर:
दूसरे (अज्ञानी) लोग यह नहीं जानते कि हम सब यहाँ (संसार में) नाशवान हैं। जो ज्ञानी इस बात को जानते हैं, उनके सारे कलह शांत हो जाते हैं।
गाथा ७
सुभानुपस्सिं विहरन्तं, इन्द्रियेसु असंवुतं।
भोजनम्हि अमत्तञ्ञुं, कुसीतं हीनवीरियं।
तं वे पसहति मारो, वातो रुक्खं व दुब्बलं॥
भाषान्तर:
जो व्यक्ति शुभ का ही दर्शन करता हुआ, इन्द्रियों में असंयत, भोजन में मात्रा न जानने वाला, आलसी और पुरुषार्थहीन होता है, उसे मार (बुराई) उसी प्रकार पराजित कर देता है, जैसे हवा एक कमजोर वृक्ष को गिरा देती है।
गाथा ८
असुभानुपस्सिं विहरन्तं, इन्द्रियेसु सुसंवुतं।
भोजनम्हि च मत्तञ्ञुं, सद्धं आरद्धवीरियं।
तं वे नप्पसहति मारो, वातो सेलं व पब्बतं॥
भाषान्तर:
जो व्यक्ति अशुभ (शरीर की अशुचिता) का दर्शन करता हुआ, इन्द्रियों में संयत, भोजन में मात्रा जानने वाला, श्रद्धावान और पुरुषार्थी होता है, उसे मार उसी प्रकार पराजित नहीं कर सकता, जैसे हवा एक चट्टानी पर्वत को नहीं हिला सकती।
गाथा ९
अनिक्कसावो कासावं, यो वत्थं परिदहेस्सति।
अपेतो दमसच्चेन, न सो कासावमरहति॥
भाषान्तर:
जिसने अपने मन के मैल (राग-द्वेष) को दूर नहीं किया है, पर काषाय (गेरुआ) वस्त्र धारण कर लेता है, वह दम (संयम) और सत्य से रहित व्यक्ति काषाय वस्त्र के योग्य नहीं है।
गाथा १०
यो च वन्तकसावस्स, सीलेसु सुसमाहितो।
उपेतो दमसच्चेन, स वे कासावमरहति॥
भाषान्तर:
जिसने मन के मैल को त्याग दिया है, जो शीलों में भली-भाँति स्थित है, जो दम (संयम) और सत्य से युक्त है, वही व्यक्ति काषाय वस्त्र के योग्य है।
गाथा ११
असारे सारमतिनो, सारे चासारदस्सिनो।
ते सारं नाधिगच्छन्ति, मिच्छासङ्कप्पगोचरा॥
भाषान्तर:
जो असार में सार देखते हैं और सार में असार देखते हैं, वे मिथ्या संकल्पों के कारण कभी सार (सत्य) को प्राप्त नहीं कर पाते।
गाथा १२
सारञ्च सारतो ञत्वा, असारञ्च असारतो।
ते सारं अधिगच्छन्ति, सम्मासङ्कप्पगोचरा॥
भाषान्तर:
जो सार को सार और असार को असार जानते हैं, वे सम्यक् संकल्पों के कारण सार (सत्य) को प्राप्त कर लेते हैं।
गाथा १३
यथा अगारं दुच्छन्नं, वुट्ठी समतिविज्झति।
एवं अभावितं चित्तं, रागो समतिविज्झति॥
भाषान्तर:
जिस प्रकार बुरी तरह छाए हुए घर में वर्षा का पानी प्रवेश कर जाता है, उसी प्रकार अभावित (अविकसित) चित्त में राग प्रवेश कर जाता है।
गाथा १४
यथा अगारं सुच्छन्नं, वुट्ठी न समतिविज्झति।
एवं सुभावितं चित्तं, रागो न समतिविज्झति॥
भाषान्तर:
जिस प्रकार अच्छी तरह छाए हुए घर में वर्षा का पानी प्रवेश नहीं कर पाता, उसी प्रकार सुभावित (विकसित) चित्त में राग प्रवेश नहीं कर पाता।
गाथा १५
इध सोचति पेच्च सोचति, पापकारी उभयत्थ सोचति।
सो सोचति सो विहञ्ञति, दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो॥
भाषान्तर:
पाप करने वाला इस लोक में भी शोक करता है और परलोक में भी शोक करता है, वह दोनों जगह शोक करता है। वह अपने कर्मों की मलिनता को देखकर शोक करता है और संतप्त होता है।
गाथा १६
इध मोदति पेच्च मोदति, कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो पमोदति, दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो॥
भाषान्तर:
पुण्य करने वाला इस लोक में भी प्रसन्न होता है और परलोक में भी प्रसन्न होता है, वह दोनों जगह प्रसन्न होता है। वह अपने कर्मों की शुद्धता को देखकर आनंदित और प्रमुदित होता है।
गाथा १७
इध तप्पति पेच्च तप्पति, पापकारी उभयत्थ तप्पति।
'पापं मे कतं'ति तप्पति, भिय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो॥
भाषान्तर:
पाप करने वाला इस लोक में भी संतप्त होता है और परलोक में भी संतप्त होता है। "मैंने पाप किया है" यह सोचकर वह संतप्त होता है, और दुर्गति को प्राप्त होकर और भी अधिक संतप्त होता है।
गाथा १८
इध नन्दति पेच्च नन्दति, कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति।
'पुञ्ञं मे कतं'ति नन्दति, भिय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो॥
भाषान्तर:
पुण्य करने वाला इस लोक में भी आनंदित होता है और परलोक में भी आनंदित होता है। "मैंने पुण्य किया है" यह सोचकर वह आनंदित होता है, और सुगति को प्राप्त होकर और भी अधिक आनंदित होता है।
गाथा १९
बहुम्पि चे संहितं भासमानो, न तक्करो होति नरो पमत्तो।
गोपो व गावो गणयं परेसं, न भागवा सामञ्ञस्स होति॥
भाषान्तर:
यदि कोई प्रमादी व्यक्ति बहुत सी संहिताओं (धर्मग्रंथों) का पाठ करता है, किन्तु उन पर आचरण नहीं करता, तो वह उस ग्वाले के समान है जो दूसरों की गायें गिनता है, वह श्रामण्य (संन्यास) के फल का भागी नहीं होता।
गाथा २०
अप्पम्पि चे संहितं भासमानो, धम्मस्स होति अनुधम्मचारी।
रागा च दोसा च पहाय मोहं, सम्मप्पजानो सुविमुत्तचित्तो।
अनुपादियानो इध वा हुरं वा, स भागवा सामञ्ञस्स होति॥
भाषान्तर:
यदि कोई व्यक्ति थोड़ी ही संहिता का पाठ करता है, किन्तु धर्म के अनुसार आचरण करता है, राग, द्वेष और मोह को त्यागकर, सम्यक् ज्ञान से युक्त होकर और चित्त को भलीभाँति विमुक्त करके, इस लोक या परलोक में किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं रखता, वही श्रामण्य (संन्यास) के फल का भागी होता है।
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