हिन्दी जातक कथा - वानरिंदजातक (सातवाँ जातक)


वानरिंदजातक (सातवाँ जातक)

प्रस्तावना: यह कथा भगवान बुद्ध ने वेलुवन में रहते हुए देवदत्त के द्वारा उनको मारणे की कोशिश के संदर्भ में कही। उस समय भगवान ने सुना कि देवदत्त उनको मारणे की योजना बना रहा है। तब उन्होंने कहा, "भिक्षुओं, यह पहली बार नहीं है कि देवदत्त उनको मारणे की कोशिश कर रहा है। पहले भी उसने ऐसा किया था, पर वह इसमें सफल नहीं हो सका।" ऐसा कहकर उन्होंने यह अतीत की कथा सुनाई।

अतीत की कथा:
प्राचीन काल में काशी के वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त का शासन था। उस समय बोधिसत्त एक वानर के रूप में जन्मे। बड़े होने पर वह एक घोड़े के बछड़े के आकार का, बलवान और एकाकी विचरण करने वाला बन गया। वह नदी के किनारे रहता था। उस नदी के बीच में एक छोटा सा टापू था, जो आम, पनस (कटहल) आदि विभिन्न फलदार वृक्षों से भरा हुआ था। बोधिसत्त, जो नाग (हाथी) जैसा बलशाली था, नदी के इस किनारे से उछलकर टापू के बीच में एक चट्टान पर उतरता, फिर वहाँ से दूसरी उछाल मारकर टापू पर पहुँच जाता। वहाँ वह विभिन्न प्रकार के फल खाता और शाम को उसी तरह वापस अपने स्थान पर लौट आता। अगले दिन फिर वही करता। इस तरह वह वहाँ रहता था।

उस समय उस नदी में एक मगरमच्छ अपनी पत्नी के साथ रहता था। मगरमच्छ की पत्नी ने बोधिसत्त को बार-बार टापू पर आते-जाते देखा और उसके हृदय के मांस की लालसा जाग उठी। उसने अपने पति से कहा, "प्रिय, मुझे उस वानर के हृदय का मांस खाने की इच्छा हो रही है।" मगरमच्छ ने कहा, "ठीक है, प्रिय, मैं तुम्हें वह दिलवाऊँगा।" उसने सोचा, "आज शाम को जब वह टापू से लौटेगा, मैं उसे पकड़ लूँगा।" यह सोचकर वह उस चट्टान पर जाकर लेट गया।

बोधिसत्त की बुद्धिमत्ता:
बोधिसत्त ने दिन भर टापू पर बिताया और शाम को जब वह लौटने को तैयार हुआ, उसने चट्टान की ओर देखा। उसे चट्टान कुछ ऊँची और असामान्य लगी। उसने सोचा, "यह चट्टान आज कुछ ऊँची दिख रही है। इसका कारण क्या हो सकता है?" उसे नदी के जलस्तर और चट्टान का आकार हमेशा ध्यान में रहता था। उसने विचार किया, "आज नदी का जल न तो कम हुआ है और न ही बढ़ा है, फिर भी यह चट्टान बड़ी दिख रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे लिए कोई खतरा यहाँ छिपा हो, जैसे कोई मगरमच्छ?" उसने इसका परीक्षण करने का फैसला किया। उसने चट्टान से बात करने का नाटक करते हुए कहा, "हे चट्टान!" कोई जवाब नहीं आया। उसने दो-तीन बार फिर पुकारा, "हे चट्टान!" फिर भी कोई जवाब नहीं मिला। तब उसने कहा, "हे चट्टान, अन्य दिनों में तुम मुझे जवाब देती थी, आज क्यों नहीं दे रही?"

मगरमच्छ ने सोचा, "शायद अन्य दिनों में यह चट्टान वानर को जवाब देती होगी। ठीक है, मैं जवाब देता हूँ।" उसने कहा, "क्या है, हे वानर?"
बोधिसत्त ने पूछा, "तू कौन है?"
मगरमच्छ बोला, "मैं मगरमच्छ हूँ।"
"यहाँ क्यों लेटा है?"
"तेरे हृदय का मांस खाने के लिए।"

बोधिसत्त ने सोचा, "मेरे पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है। आज मुझे इस मगरमच्छ को चकमा देना होगा।" उसने कहा, "हे मगरमच्छ, मैं अपने आपको तुम्हें सौंप देता हूँ। तुम अपना मुँह खोलो, जब मैं तुम्हारे पास आऊँगा, तब मुझे पकड़ लेना।"

मगरमच्छों का स्वभाव है कि जब वे मुँह खोलते हैं, तो उनकी आँखें बंद हो जाती हैं। मगरमच्छ ने यह नहीं सोचा और अपना मुँह खोलकर आँखें बंद कर लीं। बोधिसत्त ने यह देख लिया। वह टापू से उछला, मगरमच्छ के सिर पर पैर रखकर दूसरी छलांग लगाई और बिजली की तरह चमकता हुआ नदी के दूसरे किनारे पर जा खड़ा हुआ।

मगरमच्छ की प्रशंसा:
मगरमच्छ ने यह अद्भुत कार्य देखा और सोचा, "इस वानर ने तो कमाल कर दिया!" उसने कहा, "हे वानर, इस संसार में जो व्यक्ति चार गुणों से युक्त होता है, वह अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। और मुझे लगता है कि तुममें ये सभी गुण मौजूद हैं।" यह कहकर उसने यह गाथा कही:

गाथा:
"जिसके पास ये चार गुण हैं, हे वानर, जैसे तुममें हैं—
सत्य, धर्म, धैर्य, और त्याग—वह अपने शत्रुओं को परास्त कर देता है।"

गाथा का अर्थ:

  • सत्य: तुमने कहा था कि तुम मेरे पास आओगे और तुमने झूठ नहीं बोला। यह तुम्हारा सत्य है।
  • धर्म: तुममें विचारशील बुद्धि है, जिससे तुमने यह समझ लिया कि क्या करना उचित होगा।
  • धैर्य: तुममें अटल प्रयास (वीर्य) है, जो तुमने दिखाया।
  • त्याग: तुमने अपने प्राणों का त्याग करने का साहस दिखाया और मेरे पास आए। यदि मैं तुम्हें पकड़ नहीं सका, तो यह मेरा दोष है।

जो व्यक्ति, तुम्हारी तरह, इन चार गुणों से युक्त होता है, वह अपने शत्रुओं को उसी तरह परास्त करता है, जैसे तुमने आज मुझे हराया। यह कहकर मगरमच्छ ने बोधिसत्त की प्रशंसा की और अपने स्थान को लौट गया।

कथा का समापन:
भगवान बुद्ध ने कहा, "भिक्षुओं, यह पहली बार नहीं है कि देवदत्त ने मेरे वध की कोशिश की। पहले भी उसने ऐसा किया था।" इस धम्म-देशना को सुनाकर उन्होंने कथा का समापन किया और इसका संनादान इस प्रकार किया: "उस समय मगरमच्छ देवदत्त था, उसकी पत्नी चिञ्चमाणविका थी, और वानर मैं स्वयं था।"

वानरिंदजातक समाप्त।

 


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