📘 Dhammapad - ३. चित्तवग्गो – चित्त (मन)
📘 ३. चित्तवग्गो – चित्त (मन) (गाथा ३३ ते ४३, पालि ते हिंदी) ३३. पाळि: फन्दनं चपलं चित्तं, दूरक्खं दुन्निवारयं। उजुं करोति मेधावी, उसुकारो व तेजनं॥ हिंदी: मन चंचल है, फंसाने वाला है, दूर तक भागने वाला और सर्वत्र भटकने वाला है – जिसे रोकना कठिन है। बुद्धिमान व्यक्ति इसे सीधा कर लेता है, जैसे तीर बनाने वाला अपने तीर को सीधा करता है। ३४. पाळि: वारिजोव थले खित्तो, ओकमोकत उब्भतो। परिफन्दतिदं चित्तं, मारधेय्यं पहातवे॥ हिंदी: जैसे कमल जल से बाहर निकाल कर थल पर रखने से हिलने लगता है, वैसे यह मन भी चंचल होता है। इसलिए, जो मरण का कारण बनता है, ऐसे चित्त को त्याग देना चाहिए। ३५. पाळि: दुन्निग्गहस्स लहुनो, यत्थकामनिपातिनो। चित्तस्स दमथो साधु, चित्तं दन्तं सुखावहं॥ हिंदी: यह मन कठिनता से वश में आता है, हलका और इच्छानुसार गिरनेवाला है। इसलिए मन का वश में करना अच्छा है – वश में आया हुआ मन सुखदायक होता है। ३६. पाळि: सुदुद्दसं सुनिपुणं, यत्थकामनिपातिनं। चित्तं रक्खेथ मेधावी, चित्तं गुत्तं सुखावहं॥ हिंदी: मन अत्यंत सूक्ष्म और देख पाने में कठिन है, यह इच्छानुसार भ...